Wednesday 6 May 2015

घनघोर जंगलो में प्राकृतिक गुफा के भीतर खुद बना है मंदीप गुफा में शिवलिंग, ठाकुरटोला गाव में जिसके साल में सिर्फ एक दिन एक नदी को 16 बार पार करने पर मिलते हैं दर्शन


       आज से १० ,वर्ष पहले जब मैं खैरागढ़ राजनांदगांव में पदस्थ था। लोग गर्मी के दिनों में अक्षय तृतीया के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार को जंगल के भीतर स्थित एक गुफा को देखने चलने की बात करते थे ।
जिसे लोग मंढीप बाबा के नाम से जानते हैं। यह जगह छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले में छुईखदान ब्लॉक में ठाकुरटोला गाव जो की गंडई से साल्हेवारा रोड के बीच में स्थित है।इन जंगल छेत्र में अनेको देखने के लिए खूबसूरत जगह है। और बहुत से स्थान ऐसे भी बताये गए थे जो की दुर्गम होने की वजह से उस समय नही देख पाये थे ।


93-94 के दौरान मुझे अतिरिक्त प्रभार राजनांदगांव जिले में छुईखदान ब्लॉक का लेना पड़ा ,श्री पुलस्त जी (ठाकुर टोला राजवंश परिवार से है ) तब वे अध्यक्ष जनपद पंचायत थे।उनके द्वारा मुझे भी आमंत्रित किया गया । लेकिन रास्ता थोड़ा कष्ट प्रद भी भी है। आगे उन्होंने मुझे बताया.।
मेरे कुछ अधीनस्थ कर्मचारी और अधिकारी ने उनकी बात सुनकर जाने का मन बनाया और गये भी।
सबसे पहले ठाकुर टोला राजवंश के लोग यानि की उनका परिवार पूजा करने के लिए गुफा के द्वार में के अवरोधों को हटकर प्रवेश करते हैं। उनके साथ ही आम दर्शनार्थियों को भी प्रवेश करने का मौका मिलता है। आप भी आमंत्रित है। लेकिन रास्ता थोड़ा कष्ट प्रद भी भी है।
इस जगह में घनघोर जंगलों के बीच प्राकृतिक गुफा के भीतर एक शिवलिंग स्थापित है। जिसे ही लोग मंढीप बाबा के नाम से जानते हैं। निहायत ही निर्जन स्थान में गुफा के ढा़ई सौ मीटर अंदर उस शिवलिंग को किसने और कब स्थापित किया यह कोई नहीं जानता।

आस पास के ग्रामीणों के द्वारा कहा जाता है कि वहां बाबा स्वयं प्रकट हुए हैं। यानी शिवलिंग का निर्माण प्राकृतिक रूप से हुआ है।जिसकी पूजा ठाकुरटोला के राजवंश के सदस्य व ग्रामवासी लोग ही वर्ष में एक बार करते है। अतः
यहां बाबा के दर्शन करने का मौका साल में एक ही दिन मिल सकता है। वो भी अक्षय तृतीया के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार को।
दिलचस्प बात ये है कि वहां जाने के लिए एक ही नदी को 16 बार लांघना पड़ता है। यह कोई अंधविश्वास नहीं है, बल्कि वहां जाने का रास्ता ही इतना घुमावदार है कि वह नदी रास्ते में 16 बार आती है।
साल में एक ही बार जाने के पीछे पुरानी परंपरा के अलावा कुछ व्यवहारिक कठिनाइयां भी हैं। बरसात में गुफा में पानी भर जाता है, और रास्ते भी काफी दुर्गम हो जाते है। जबकि ठंड के मौसम में खेती-किसानी में व्यस्त होने से लोग वहां नहीं जाते।
रास्ता भी इतना दुर्गम है कि सात-आठ किलोमीटर का सफर तय करने में करीब एक घंटा लग जाता है। उसके बाद पैदल चलते समय पहले पहाड़ी पर चढ़ना पड़ता है और फिर उतरना, तब जाकर गुफा का दरवाजा मिलता है।
साथ ही यह घोर नक्सल इलाके में पड़ता है, इसलिए भी आम दिनों में लोग इधर नहीं आते।उस समय उनका ज्यादा आतंक या उत्पात भी नही था। वन्य प्राणियों की भी मिलने की सम्भावना रहती है।
हर साल अक्षय तृतीया के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार के दिन गुफा के पास इलाके के हजारों लोग जुटते हैं।
परंपरानुसार सबसे पहले ठाकुर टोला राजवंश के लोग पूजा करने के बाद गुफा में प्रवेश करते हैं। उसके बाद आम दर्शनार्थियों को प्रवेश करने का मौका मिलता है। गुफा के डेढ़-दो फीट के रास्ते में घुप अंधेरा रहता है।
लोग काफी कठिनाई से रौशनी कीव्यवस्था साथ लेकर बाबा के दर्शन के लिए अंदर पहुंचते हैं।
गुफा में एक साथ 500-600 लोग प्रवेश कर जाते हैं। अभी १५ २० वर्ष पूर्व गुफा के अंदर मशाल के और बीड़ी की धुवा ने मधुमक्खीयो को उत्तेजित कर दिया था और उसने काफी लोगो को काट कर घायल कर दिया था। इसलिए अंदर काफी सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है। अक्षय तृतीया के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार के भी निकल जाने के बाद बाज़ार के दिन मै अपने शासकीय कार्य निपटाने छुईखदान ब्लॉक हेड क्वार्टर गया। उपयंत्रीयो से कार्यो के मुल्यांकन पर चर्चा हेतु बुलवाया। जब वे आये तो उनके चेहरे सूजन से बिगड़े हुए थे। मैंने पूछा क्या हो गया है ,तो साथ ही में मिलने आये श्री चंद्राकर जी सहकारिता इंस्पेक्टर ने बताया की हम लोग इस बार काफी संख्या में मंदीप बाबा जी के दर्शन को गए काफी कष्टो के बाद गुफा के समीप पहुंच पाये । कई लोग नशे में थे तो कई लोग बीड़ी पीकर अपने थकावट मिटाने लगे ।. तभी अचानक ही भनभनाहट की आवाज़ के साथ ही बड़ी बड़ी मधुमक्खियां हम पर टूट पड़ी.

मै देहात से सम्बंधित हु इसलिए जानता था की क्या करना चाहिए और अपने साथ ले गए गामझे को सर में डालकर शांत बिना ही हिले डुले शांत बन पानी वाली जगह में लेट गया ,मेरे ऊपर बैठे तो लेकिन १,२ ही काटे , बीड़ी पी कर धुँआ छोड़ने वाले, दौड़ने भागने वाले उनके कोप भजन के ज्यादा ही शिकार हो घायल हुए ,जैसे तैसे ही हम लोग लौट के आ पाये। साथ में गए से अनेको अस्पताल में इलाज़ करा रहे है। मन ही मन मैंने सोचा की अच्छा हुआ की नही गया ,लेकिन गुफा को नही देख पाने और बाबा के दर्शन नही होने का दुःख मुझे आज भी है। मज़ेदार बात यह हुआ की कुछ लोग जिनको नाम बनाने की शौक होता है। आदिमानव के समय से होते आये गुफा के भीतर प्रवेश को अपनी खोज बता कर समाचार पेपर में काफी नाम कमाया।
गुफा के अंदर जाने के बाद कई रास्ते खुलते है , इसलिए अनजान आदमी को गुफा के अंदर भटक जाने का डर बना रहता है। ऐसा होने के बाद शिवलिंग तक पहुंचने में चार-पांच घंटे का समय लग जाता है।
इसलिए ग्राम के उन व्यक्तिओ को जो प्रति वर्ष अंदर जाते रहते है लोगो के साथ झुण्ड में ही जाना उचित रहता है।
स्थानीय लोगो का का कहना है मैकल पर्वत पर स्थित इस गुफा का एक छोर अमरकंटक में है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि आज तक कोई वहां तक नही पहुंच पाया है। लेकिन बहुत पहले पानी के रास्ते एक कुत्ता छोड़ा गया था, जो अमरकंटक में निकला। जबकि अमरकंटक यहां से करीब पांच सौ किलोमीटर दूर है।

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Dk Sharma
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Saturday 18 April 2015

न्याय पाने के लिए अन्याय से लड़ने की प्रेरणा मिलती है,भारत के इस धार्मिक ग्रंथ से इसलिए  अँगरेज़ भी इस ग्रन्थ के विरुद्ध थे,,,,,,,,,,,,,,,,?  

डी. के. शर्मा  सुंदरनगर रायपुर 


दोस्तों वर्ष 2001 की बात है मै बैतूल जिला में पदस्थ था , कार्यालय पहुंच कर अपने चैम्बर में बैठा  ही था की कुछ देर बाद दो  भगवा वस्त्र पहने अंग्रेज  मेरे कमरे में अनुमति लेकर प्रवेश किये। उनके हाथ में बहुत ही अच्छे दीखते कवर पेज वाले भगवत गीता की किताब थी। सादर अभिवादन के बाद मेरे हाथ में उन्होंने देखने के लिए दी। कुछ देर देखने उलट पुलट करने के के बाद वापस कर दी मैंने उन्हें। उनसे निवेदन हुआ ,खरीदेंगे आप ?मैंने कहा नही। पसंद नही आई आपको,,,?उन्होंने कहा। वे बहुत ही अच्छा हिंदी बोल रहे थे। नहीं तो ऐसी बात नही है ,मैंने कहा। कारण उन्होंने पूच्छा। मैंने कहा देखिये सर लोगो का और हमारे बुजुर्गो का मानना है की महाभारत की स्टोरी या गीता को घर में रखने से झगड़ा, या घर में कलह होता है ,इसलिए इसे मै खरीदना चाह कर भी खरीद नही पाउँगा। यदि आप चाहे तो इतनी कीमत का भुगतान आपकी संस्था को कर देता हु। नो सर। एक मिनट क्या आप हमारी बात सुनना पसंद करेंगे। विनम्रता पूर्वक उन्होंने कहा ..... जी हा बोलिए। सर हमारे अँगरेज़ भाई ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम पर आपके देश में राज़ करते रहे है। वे नही चाहते है की आप लोगो के मन में किसी भी तरह की विद्रोह या उन्हें हटाने की दिशा में मास्टर स्ट्रैटजी बनाने की प्रेरणा मिले। इसलिए उन्होंने और उनके लोगो ने इस तरह की भ्रान्ति फैला रखी थी ,जिसे लोग आज भी ढो रहे है।न्याय पाने के लिए अन्याय से लड़ने की प्रेरणा मिलती है।   जीवन और करियर में सफलता पाने के लिए भारत के इस धार्मिक ग्रंथ से बहुत कुछ सीखा जा सकता है.  उदहारण स्वरुप आप स्वयं देखे की सफलता पाने के 6 टिप्स इस ग्रन्थ महाभारत सीखें सफलता पाने के 6 टिप्स इस ग्रन्थ से मिलते है। देखिये आप :-
1. बुरी संगत हमेशा नुकसान दायक: हम सब ने महाभारत पढ़कर या सीरियल देखकर जरूर यह सोचा होगा कि शकुनी की सलाह ने कौरवों की जिंदगी नर्क बना दी और उनका सब कुछ बर्बाद कर दिया अच्छी सलाह से भी उनका भला भी तो हो सकता था. शकुनी के माध्यम से स्टूडेंट के लिए यह सीख है कि वो हमेशा ऐसे लोगों से बचे जो अच्छे व्यवहार वाले नहीं होते हैं.
2. बिना शर्तों के साथ रहने वाले दोस्त होते हैं अच्छे: भगवान कृष्ण ने पांडवों का साथ हर मुश्किल वक्त में देकर यह साबित कर दिया था कि दोस्त वही अच्छे होते हैं जो किसी भी परिस्थिति में आपके साथ रहते हैं. दोस्ती में शर्तों के लिए कोई जगह नहीं है, इसलिए किसी को भी ऐसे ही दोस्त अपने आस-पास रखने चाहिए जो हर मुश्किल परिस्थिति में उनका साथ दे सकता हो.
3. जिदंगी में हर वक्त सीखते रहना: महाभारत का सबसे बड़ा योद्धा अर्जुन ने ना केवल अपने गुरू से सीख लिया बल्कि वह अपने अनुभवों से हमेशा कुछ न कुछ सीखते रहे. यह सीख हर स्टूडेंट के लिए जरूरी है. स्टूडेंट को शिक्षक के अलावे अपनी गलतियों और असफलताओं से हमेशा सीखना चाहिए.
4. अधूरे ज्ञान मतलब खतरे की घंटी: महाभारत में अभिमन्यू अपनी वीरता के लिए जाना जाता है लेकिन चक्रव्यूह भेदने के उनके अधूरे ज्ञान ने उन्हें मौत के मुंह में ढकेल दिया. व्यक्ति को हमेशा यह याद रखना चाहिए कि वह जो भी नॉलेज पाए उसे पूरा पाएं ना कि अधूरा, यह आपको कई बार परेशानी में डाल सकता है.
5. सफलता पाने के लिए जुनूनी होना जरूरी: महाभारत के एकलव्य से ज्यादा जुनूनी हमें शायद ही कहीं और मिले. एकलव्य से हमें यह सीखना चाहिए कि सफलता उसी को मिलेगी जो जुनूनी होगा. स्टूडेंट के लिए एकलव्य एक अच्छा उदाहरण है.
6. मास्टर स्ट्रैटजी: किसी भी जीत के लिए एक अच्छा रन निती बनाना आवश्यक है ,अगर पांडवों के पास भगवान कृष्ण की मास्टर स्ट्रैटजी ना होती तो शायद ही पांडव युद्ध में जीत पाते. इसलिए किसी भी सफलता को प्राप्त करने के लिए स्ट्रैटजी बनानी आवश्यक है.
मैंने उस पुस्तक को उनके तर्कों को सुनकर खरीद लिया। और जिसे की मैंने काफी सम्हाल कर आज भी रखा हुआ हु।
और उनमे से बहुत सी बातें आज भी के परिवेश में उतनी ही कारगर है। हरे रामा हरे कृष्णा के धुन में नाचते और अन्य अंग्रेजो के साथ जाकर वो भी मिल गए। आपको अच्छा लगे तो कमेंट जरूर कीजियेगा।

Tuesday 10 March 2015

उबलते पानी मे मेंढक डी. के. शर्मा ,सुंदरनगर रायपुर छत्तीसगढ़ 


अगर मेंढक को गर्म उबलते पानी में डाल दें तो वो छलांग लगा कर बाहर आ जाएगा और उसी मेंढक को अगर सामान्य तापमान पर पानी से भरे बर्तन में रख दें और पानी धीरे धीरे गरम करने लगें तो क्या होगा ?
मेंढक फौरन मर जाएगा ? ,,,,,,,,,,,, ,,,,,,,,,,,,,,जी नहीं
ऐसा बहुत देर के बाद होगा...
दरअसल होता ये है कि जैसे जैसे पानी का तापमान बढता है, मेढक उस तापमान के हिसाब से अपने शरीर को Adjust करने लगता है।
पानी का तापमान, खौलने लायक पहुंचने तक, वो ऐसा ही करता रहता है।अपनी पूरी उर्जा वो पानी के तापमान से तालमेल बनाने में खर्च करता रहता है लेकिन जब पानी खौलने को होता है और वो अपने Boiling Point तक पहुंच जाता है, तब मेढक अपने शरीर को उसके अनुसार समायोजित नहीं कर पाता है, और अब वो पानी से बाहर आने के लिए, छलांग लगाने की कोशिश करता है।
लेकिन अब ये मुमकिन नहीं है। क्योंकि अपनी छलाँग लगाने की क्षमता के बावजूद , मेंढक ने अपनी सारी ऊर्जा वातावरण के साथ खुद को Adjust करने में खर्च कर दी है।
अब पानी से बाहर आने के लिए छलांग लगाने की शक्ति, उस में बची ही नहीं I वो पानी से बाहर नहीं आ पायेगा, और मारा जायेगा I
मेढक क्यों मर जाएगा ?
कौन मारता है उसको ?
पानी का तापमान ?
गरमी ?
या उसके स्वभाव से ?
मेढक को मार देती है, उसकी असमर्थता सही वक्त पर ही फैसला न लेने की अयोग्यता । यह तय करने की उसकी अक्षमता कि कब पानी से बाहर आने के लिये छलांग लगा देनी है।
इसी तरह हम भी अपने वातावरण और लोगो के साथ सामंजस्य बनाए रखने की तब तक कोशिश करते हैं, जब तक की छलांग लगा सकने की हमारी सारी ताकत खत्म नहीं हो जाती ।
लोग हमारे तालमेल बनाए रखने की काबिलियत को कमजोरी समझ लेते हैं। वो इसे हमारी आदत और स्वभाव समझते हैं। उन्हें ये भरोसा होता है कि वो कुछ भी करें, हम तो Adjust कर ही लेंगे और वो तापमान बढ़ाते जाते हैं।
हमारे सारे इंसानी रिश्ते, राजनीतिक और सामाजिक भी, ऐसे ही होते हैं, पानी, तापमान और मेंढक जैसे। ये तय हमे ही करना होता है कि हम जल मे मरें या सही वक्त पर कूद निकलें।

(विचार करें, गलत-गलत होता है, सही-सही, गलत सहने की सामंजस्यता हमारी मौलिकता को ख़त्म कर देती है)

Tuesday 3 March 2015

"स्वयं में तो दम नही और सोच में  हम किसी से कम नही " 
( वह बड़े साहब के सामने दुम हिलाता है तो  कनिष्ठ व चपरासी के सामने शेर   )


मध्यवर्गीय  परिवार का सदस्य भी  एक अजीब  सा जीव होता है ,क्युकी एक और  उसमे उच्च वर्ग का अहंकार तो दूसरी और निम्न वर्ग की दीनता होती है। अहंकार और दीनता से मिलकर बना उसका व्यक्तित्व बड़ा ही विचित्र होता है। वह बड़े साहब के सामने दुम हिलाता है तो  अपने से कनिष्ठ व् चपरासी के सामने शेर बन जाता है। मज़ेदार बात जब होती है जब वो अपने से कनिष्ठ को ज्यादा सुख पूर्वक बैठे देख ले। तुरंत ही उसके पेट में गुड गुड गुड चालू हो जाता है। कि  उसकी कुर्सी मेरी कुर्सी से अच्छी क्यू …,,,,,,? 
यह  बात हरिशंकर परसाई जी ने अपने एक व्यंग में लिखा था।
आज भी लोग गुलामी की  मानसिकता    से ऊपर नही उठ पाये है , इनके लिए अच्छा व्यवहार  में काम करके ,लोगो की दिल जीतना नही आता। ऐसे लोग लोगो को  नियमो के जाल  में  लपेट  कर   लोगो पर   रुआब गाठ अपना सिक्का जमाना  चाहते है।
बिचारे नही जानते है  की उनकी साहबी को लोग उनके सामने खड़े रहने तक ही  मानते है। 
वे रोजाना  के लिए  हंसी -मज़ाक   के मुख्य विषय   है। अब  काम करने का युग है। काम करने वाले की इज़्ज़त है, न की काम को लटकाने  हेतु  नियम खोजने वालो की। 
भारत में शासन की ढीला पन की  बदनामी कराने में  ऐसे ही लोग है शामिल है  ।
सरकारी तंत्र में लीडरशिप की बात यदि करे तो मैंने अनेको अधिकारीयो  को जो की जिम्मेदार पदो के शीर्ष  में  बैठे हुए रहते है , को अपने टेबल में फाइलों के ढेरो के बीच चिड़चिड़ाते , बौखलाते  हुए  बैठा  पाता हु।
क्योंकि   फाइल को  वे न तो यस ही कर पाते  है  और न ही  नो  कर पाने की हिम्मत । डर  अलग बैठा है की फॅस  न जाऊ। दूसरा मेरी कलम से खा तो नही लेगा। ऐसे लोग 
जो  सामने आया  तो कटकन्ने कुत्ते जैसे भोक दिया ,नेता आया तो पूछ हिला दिया।
 ऐसे लोग  न तो फायर ही कर पाते है और न ही उसे झेल पाते है। 
 वे  भगवान  के भरोसे आगे ही आगे बढ़ते जाते है। ऐसे लोग  सोचते है की उनके सारे कुकृत्य दूसरे की सर में चढ़ जाये। और वह स्वयं  साफ सुथरा  सत्यवादी हरिस्चन्द्र की भांति  दीखता रहे  
"  स्वयं में तो दम नही और सोच में  हम किसी से कम नही "   में ही  इनकी पूरी  जिंदगी कट जाती है। 

Saturday 24 January 2015

 बाबू शब्द की उत्पत्ति कैसे हुयी....क्या आप जानते है ?आज के ज़माने में अगर कोई भी सरकारी काम  किसी से निकलवाना है तो बाबू भइया को खुश रखना आवश्यक है। मुझे लगा की इस शब्द की उत्पत्ति क्यों और कहा  से हुयी है की जानकारी शायद आपको भी  हो ? नही न  ,  यदि जानना चाहते है  तो … क्या कहते है आप ? बाबू शब्द  हम लोगों ने अपने आसपास काफी  सुना है...... हम प्यार से  भी लोगों को बाबू कहते हैं, और अपने बच्चों को भी  भी बाबू कहकर पुकारते रहे है।   सरकारी कार्यालय में  क्लर्कों को भी बाबू  भैय्या ही तो कहते हैं ......या तो  कह लें कि  हम काम निकलने के लिए  उनकी  चापलूसी करते हैं...... और वे भी  बहुत खुश होते हैं....... अगर कोई उन्हें  प्यार से बाबू
कहे...... मतलब यह है की .....हम भारतीय... बाबू को  बहुत ही सम्मानजनक नाम के रूप में ही  लेते हैं..........लेकिन! क्या हमने कभी यह सोचा है की इस बाबू शब्द की उत्पत्ति कैसे और कहा  से  हुयी है? आखिर  जरा  सोचे तो भला   की ये शब्द  आया तो आया  कहा  से  ?
 क्या  आप कभी  मुंबई में नेहरू प्लेनेटोरियम के बगल में एक गोल बिल्डिंग है जिसमें इतिहास की समग्र जानकारी को पर्मानेंट प्रदर्शनी के
तौर पर रखा गया है, देखने को गये है। इस प्रदर्शनी को देखते हुए काफी अलग अलग किस्म की  रोचक जानकारीयां मिलती है। जिनके बारे में फिर कभी ?
वही  पर  एक जगह एक दरवाजा बना हुआ है  है जो कि किसी अंग्रेज के घर का है। घर में टंगे पोस्ट बॉक्स के बगल में एक ओर तख्ती लगी है जिस पर लिखा है - Dogs and Indians are not allowed  और इस तरह की तख्ती हिल स्टेशन  शिमला मसूरी  की मॉल रोड में भी लगी मिल जाती थी। या फिर  सिविल लाइन एरिया में भी जहा  की वे लोग रहते थे ।
इसी बात से पता चलता है कि अंग्रेज हमारे लिये कैसा व्यवहार रखते थे।
 अंग्रेज़ों ने हम पे जैसा की  सबको मालूम है की दो सौ साल तक भारत में  राज किया.... और हम हिन्दुस्तानियों को  इस दौरान बहुत ही हेय निगाह से देखा  करते थे।  उस वक्त अंग्रेज़ों के घरों और सरकारी दफ़्तर  में हिन्दुस्तानी लोग ही  नौकर थे..... उन लोगों को अँगरेज़ उनके रंग और डील डोल देख कर   बबून (baboon) पुकारते थे..... ( बबून (baboon) एक प्रकार का बन्दर प्रजाति का जानवर है.... जो कि अफ्रीका में पाया जाता है......जिसका मूँह कुत्ते जैसा और धड़ बन्दर जैसा होता है)
 तो भाई! ये अँगरेज़ लोग हम हिंदुस्तानिओं को बबून(baboon) कह कर हि  पुकारते थे..... जो कि अपभ्रंश होकर बाबू हो गया..... वैसे भी  हम हिन्दुस्तानियों को अंग्रेज़ों कि अंग्रेज़ी समझ में  ज्यादा तो  आती थी , नही  ....  तो जब अँगरेज़ हम हिन्दुस्तानियों को बबून (baboon) बुलाते थे..... तो हम हिन्दुस्तानियों कि उनके उच्चारण से  यह लगता  था..... कि यह लोग हमें प्यार से बाबू बुलातेहैं...... और ऐसा अँगरेज़ उस वक्त ज़्यादा करते थे जब उनके घर में कोई विलायत से मेहमान आता था..... यहाँ तक कि उस वक्त के I.C.S. Officers को भी अँगरेज़ बबून ही बुलाते थे..... .... और हम हिन्दुस्तानी भी ऐसे थे.... कि अपने घर जा कर उस वक्त लोगों को बड़ी खुशी खुशी बताते थे कि अँगरेज़ हमें प्यार से बाबू बुलाते हैं..... बेचारों को क्या मालूम था कि अँगरेज़ हमें  अपनी भाषा में गालियाँ दे रहें हैं..... बबून कह के...क्युकी इस शब्द के बारे में उन्होंने  ज्यादा नही सोचा। और  गूगल बाबा तो  थे नही जो की उन्हें बबून के फोटो दिखाते।    अंग्रेजो के चमचे  पढ़े लिखे भारतीयों ने भी   न ही  कभी  कोई आपत्ति ली। आज़ादी के बाद धीरे - धीरे यह शब्द हमारी आम ज़िन्दगी में प्रचलन में आ गया......
बाबूजी "बाबू" के सम्बन्ध में वैसे मेरी  इस  बात से पूरी तरह सहमत यदि नही हो तो  एक और पक्ष से भी आपको  वाकिफ करना चाहूँगा। जो की ज्यादा मान्य और लोगो को पसंद  है  वह यह की ब्रिटिश शासन के दौरान जब कोलकाता एकीकृत भारत की राजधानी थी, कोलकाता को लंदन के बाद ब्रिटिश साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर माना जाता था। इसी दौरान बंगाल और खासकर कोलकाता में बाबू संस्कृति का विकास हुआ जो ब्रिटिश उदारवाद और बंगाली समाज के आंतरिक उथल पुथल का नतीजा  ही कहा  जा सकता है। उस समय  वहां  पर  बंगाली जमींदारी प्रथा हिंदू धर्म के सामाजिक, राजनैतिक, और नैतिक मूल्यों में उठापटक मचा हुआ था । और इन्हीं द्वंदों का नतीजा था कि अंग्रेजों के आधुनिक शैक्षणिक संस्थानों में पढे कुछ लोगों ने बंगाल के समाज में सुधारवादी बहस को जन्म दिया। मूल रूप से "बाबू" उन लोगों को कहा जाता था जो पश्चिमी ढंग की शिक्षा पाकर भारतीय मूल्यों को हिकारत की दृष्टि से देखते थे और खुद को ज्यादा से ज्याद पश्चिमी रंग ढंग में ढालने की कोशिश करते थे। लेकिन लाख कोशिशों के बावज़ूद भी  जब अंग्रेजों के बीच जब उनकी अस्वीकार्यता बनी रही।  तो बाद में  इसी वर्ग के कुछ लोगो ने नयी बहसों की शुरुआत की जो बंगाल के पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है। इसके तहत बंगाल में सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक सुधार के बहुत से अभिनव प्रयास हुये और बांग्ला साहित्य ने नयी ऊँचाइयों को छुआ जिसको बहुत तेजी से अन्य भारतीय समुदायों ने भी अपनाया। और इन्ही पढ़े लिखे लोगो की जमात बाबू कहलाने लगी.शायद
इसलिए बंगाली लोगों को आज भी बंगाली बाबू ही  कहा जाता है.
बाबू शब्द पिता के लिए भी प्रयोग होता है..... अब क्यूंकि हम भारतीय बाबू शब्द को सम्मान की नज़र से देखते हैं..... तो यह शब्द हम बड़ों बूढों को इज्ज़त देने के लिए भी इसका प्रयोग करने लगे.....फर्क बस इतना है की हमने बाबू के साथ जी भी जोड़ दिया वो बाबूजी हो गया..... अगर देखा जाए तो हम एक तरह से इस नाम का  बेईज्ज़ती ही कर रहे थे .....
हमें बाबूजी नहीं बोलना चाहिए.था .... मतलब हम बेईज्ज़ती भी सम्मान के साथ कर रहे हैं..... अब  एक और पक्ष  को ले तो ,शायद   यह बाबूजी भी नहीं था.... यदि था तो  ..  हमारी संस्कृति में यह बाउजी था..... जो आपक़ो हरयाणा की संस्कृति को  देखने में  मिल जायेगा..... बाउजी शब्द ही  आगे चल कर धीरे धीरे बाबूजी हो गया......... यह वही बाबू हैं जिन्होंने अंग्रेजों से वेस्टर्न शिक्षा ग्रहण की.... और अँगरेज़ उनको भी बाबू ही बोलते थे..... जिसको बंगाल के संस्कृति ने अपना लिया.... अब जब इंसान पढ़ लिखा लेता है.... तो दिमाग खुल जाता है ..... और बंगाली उस वक़्त अंग्रेजी शिक्षा के ज्यादा करीब थे..... लेकिन बंगालिओं ने अंग्रेजों से सीख के हम भारतियों को ज्ञान ही दिया..... इसलिए बंगाली लोग खुद को बाबू कहलाना पसंद करते थे...... क्यूंकि उनको भी लगता की ..... अँगरेज़ उन्हें प्यार से बाबू कह रहे हैं.....बहुत खूब.. भई हम तो प्यार से लोगों को बाबू कहकर ही बुलाते हैं
बाबू शब्द का विश्लेषण और उसमे छिपे हुए अर्थ को जानकर अज़ीब सा लगा. हम अक्सर इसे तो सम्मान देने के लिये प्रयोग करते थे. बाबू हम छोटे बच्चे के लिये भी प्रयोग करते थे. अब पता चला कि इसमे कितनी हिकारत भरी है.
 बस  भैय्या अब   इस सम्बन्ध में ज्यादा नही,  क्युकी किसी बाबू जी ने  कही पढ़ लिया न, तो लेने के देने न  पड़  जायें ।