Tuesday 10 March 2015

उबलते पानी मे मेंढक डी. के. शर्मा ,सुंदरनगर रायपुर छत्तीसगढ़ 


अगर मेंढक को गर्म उबलते पानी में डाल दें तो वो छलांग लगा कर बाहर आ जाएगा और उसी मेंढक को अगर सामान्य तापमान पर पानी से भरे बर्तन में रख दें और पानी धीरे धीरे गरम करने लगें तो क्या होगा ?
मेंढक फौरन मर जाएगा ? ,,,,,,,,,,,, ,,,,,,,,,,,,,,जी नहीं
ऐसा बहुत देर के बाद होगा...
दरअसल होता ये है कि जैसे जैसे पानी का तापमान बढता है, मेढक उस तापमान के हिसाब से अपने शरीर को Adjust करने लगता है।
पानी का तापमान, खौलने लायक पहुंचने तक, वो ऐसा ही करता रहता है।अपनी पूरी उर्जा वो पानी के तापमान से तालमेल बनाने में खर्च करता रहता है लेकिन जब पानी खौलने को होता है और वो अपने Boiling Point तक पहुंच जाता है, तब मेढक अपने शरीर को उसके अनुसार समायोजित नहीं कर पाता है, और अब वो पानी से बाहर आने के लिए, छलांग लगाने की कोशिश करता है।
लेकिन अब ये मुमकिन नहीं है। क्योंकि अपनी छलाँग लगाने की क्षमता के बावजूद , मेंढक ने अपनी सारी ऊर्जा वातावरण के साथ खुद को Adjust करने में खर्च कर दी है।
अब पानी से बाहर आने के लिए छलांग लगाने की शक्ति, उस में बची ही नहीं I वो पानी से बाहर नहीं आ पायेगा, और मारा जायेगा I
मेढक क्यों मर जाएगा ?
कौन मारता है उसको ?
पानी का तापमान ?
गरमी ?
या उसके स्वभाव से ?
मेढक को मार देती है, उसकी असमर्थता सही वक्त पर ही फैसला न लेने की अयोग्यता । यह तय करने की उसकी अक्षमता कि कब पानी से बाहर आने के लिये छलांग लगा देनी है।
इसी तरह हम भी अपने वातावरण और लोगो के साथ सामंजस्य बनाए रखने की तब तक कोशिश करते हैं, जब तक की छलांग लगा सकने की हमारी सारी ताकत खत्म नहीं हो जाती ।
लोग हमारे तालमेल बनाए रखने की काबिलियत को कमजोरी समझ लेते हैं। वो इसे हमारी आदत और स्वभाव समझते हैं। उन्हें ये भरोसा होता है कि वो कुछ भी करें, हम तो Adjust कर ही लेंगे और वो तापमान बढ़ाते जाते हैं।
हमारे सारे इंसानी रिश्ते, राजनीतिक और सामाजिक भी, ऐसे ही होते हैं, पानी, तापमान और मेंढक जैसे। ये तय हमे ही करना होता है कि हम जल मे मरें या सही वक्त पर कूद निकलें।

(विचार करें, गलत-गलत होता है, सही-सही, गलत सहने की सामंजस्यता हमारी मौलिकता को ख़त्म कर देती है)

Tuesday 3 March 2015

"स्वयं में तो दम नही और सोच में  हम किसी से कम नही " 
( वह बड़े साहब के सामने दुम हिलाता है तो  कनिष्ठ व चपरासी के सामने शेर   )


मध्यवर्गीय  परिवार का सदस्य भी  एक अजीब  सा जीव होता है ,क्युकी एक और  उसमे उच्च वर्ग का अहंकार तो दूसरी और निम्न वर्ग की दीनता होती है। अहंकार और दीनता से मिलकर बना उसका व्यक्तित्व बड़ा ही विचित्र होता है। वह बड़े साहब के सामने दुम हिलाता है तो  अपने से कनिष्ठ व् चपरासी के सामने शेर बन जाता है। मज़ेदार बात जब होती है जब वो अपने से कनिष्ठ को ज्यादा सुख पूर्वक बैठे देख ले। तुरंत ही उसके पेट में गुड गुड गुड चालू हो जाता है। कि  उसकी कुर्सी मेरी कुर्सी से अच्छी क्यू …,,,,,,? 
यह  बात हरिशंकर परसाई जी ने अपने एक व्यंग में लिखा था।
आज भी लोग गुलामी की  मानसिकता    से ऊपर नही उठ पाये है , इनके लिए अच्छा व्यवहार  में काम करके ,लोगो की दिल जीतना नही आता। ऐसे लोग लोगो को  नियमो के जाल  में  लपेट  कर   लोगो पर   रुआब गाठ अपना सिक्का जमाना  चाहते है।
बिचारे नही जानते है  की उनकी साहबी को लोग उनके सामने खड़े रहने तक ही  मानते है। 
वे रोजाना  के लिए  हंसी -मज़ाक   के मुख्य विषय   है। अब  काम करने का युग है। काम करने वाले की इज़्ज़त है, न की काम को लटकाने  हेतु  नियम खोजने वालो की। 
भारत में शासन की ढीला पन की  बदनामी कराने में  ऐसे ही लोग है शामिल है  ।
सरकारी तंत्र में लीडरशिप की बात यदि करे तो मैंने अनेको अधिकारीयो  को जो की जिम्मेदार पदो के शीर्ष  में  बैठे हुए रहते है , को अपने टेबल में फाइलों के ढेरो के बीच चिड़चिड़ाते , बौखलाते  हुए  बैठा  पाता हु।
क्योंकि   फाइल को  वे न तो यस ही कर पाते  है  और न ही  नो  कर पाने की हिम्मत । डर  अलग बैठा है की फॅस  न जाऊ। दूसरा मेरी कलम से खा तो नही लेगा। ऐसे लोग 
जो  सामने आया  तो कटकन्ने कुत्ते जैसे भोक दिया ,नेता आया तो पूछ हिला दिया।
 ऐसे लोग  न तो फायर ही कर पाते है और न ही उसे झेल पाते है। 
 वे  भगवान  के भरोसे आगे ही आगे बढ़ते जाते है। ऐसे लोग  सोचते है की उनके सारे कुकृत्य दूसरे की सर में चढ़ जाये। और वह स्वयं  साफ सुथरा  सत्यवादी हरिस्चन्द्र की भांति  दीखता रहे  
"  स्वयं में तो दम नही और सोच में  हम किसी से कम नही "   में ही  इनकी पूरी  जिंदगी कट जाती है।