Wednesday 6 May 2015

घनघोर जंगलो में प्राकृतिक गुफा के भीतर खुद बना है मंदीप गुफा में शिवलिंग, ठाकुरटोला गाव में जिसके साल में सिर्फ एक दिन एक नदी को 16 बार पार करने पर मिलते हैं दर्शन


       आज से १० ,वर्ष पहले जब मैं खैरागढ़ राजनांदगांव में पदस्थ था। लोग गर्मी के दिनों में अक्षय तृतीया के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार को जंगल के भीतर स्थित एक गुफा को देखने चलने की बात करते थे ।
जिसे लोग मंढीप बाबा के नाम से जानते हैं। यह जगह छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले में छुईखदान ब्लॉक में ठाकुरटोला गाव जो की गंडई से साल्हेवारा रोड के बीच में स्थित है।इन जंगल छेत्र में अनेको देखने के लिए खूबसूरत जगह है। और बहुत से स्थान ऐसे भी बताये गए थे जो की दुर्गम होने की वजह से उस समय नही देख पाये थे ।


93-94 के दौरान मुझे अतिरिक्त प्रभार राजनांदगांव जिले में छुईखदान ब्लॉक का लेना पड़ा ,श्री पुलस्त जी (ठाकुर टोला राजवंश परिवार से है ) तब वे अध्यक्ष जनपद पंचायत थे।उनके द्वारा मुझे भी आमंत्रित किया गया । लेकिन रास्ता थोड़ा कष्ट प्रद भी भी है। आगे उन्होंने मुझे बताया.।
मेरे कुछ अधीनस्थ कर्मचारी और अधिकारी ने उनकी बात सुनकर जाने का मन बनाया और गये भी।
सबसे पहले ठाकुर टोला राजवंश के लोग यानि की उनका परिवार पूजा करने के लिए गुफा के द्वार में के अवरोधों को हटकर प्रवेश करते हैं। उनके साथ ही आम दर्शनार्थियों को भी प्रवेश करने का मौका मिलता है। आप भी आमंत्रित है। लेकिन रास्ता थोड़ा कष्ट प्रद भी भी है।
इस जगह में घनघोर जंगलों के बीच प्राकृतिक गुफा के भीतर एक शिवलिंग स्थापित है। जिसे ही लोग मंढीप बाबा के नाम से जानते हैं। निहायत ही निर्जन स्थान में गुफा के ढा़ई सौ मीटर अंदर उस शिवलिंग को किसने और कब स्थापित किया यह कोई नहीं जानता।

आस पास के ग्रामीणों के द्वारा कहा जाता है कि वहां बाबा स्वयं प्रकट हुए हैं। यानी शिवलिंग का निर्माण प्राकृतिक रूप से हुआ है।जिसकी पूजा ठाकुरटोला के राजवंश के सदस्य व ग्रामवासी लोग ही वर्ष में एक बार करते है। अतः
यहां बाबा के दर्शन करने का मौका साल में एक ही दिन मिल सकता है। वो भी अक्षय तृतीया के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार को।
दिलचस्प बात ये है कि वहां जाने के लिए एक ही नदी को 16 बार लांघना पड़ता है। यह कोई अंधविश्वास नहीं है, बल्कि वहां जाने का रास्ता ही इतना घुमावदार है कि वह नदी रास्ते में 16 बार आती है।
साल में एक ही बार जाने के पीछे पुरानी परंपरा के अलावा कुछ व्यवहारिक कठिनाइयां भी हैं। बरसात में गुफा में पानी भर जाता है, और रास्ते भी काफी दुर्गम हो जाते है। जबकि ठंड के मौसम में खेती-किसानी में व्यस्त होने से लोग वहां नहीं जाते।
रास्ता भी इतना दुर्गम है कि सात-आठ किलोमीटर का सफर तय करने में करीब एक घंटा लग जाता है। उसके बाद पैदल चलते समय पहले पहाड़ी पर चढ़ना पड़ता है और फिर उतरना, तब जाकर गुफा का दरवाजा मिलता है।
साथ ही यह घोर नक्सल इलाके में पड़ता है, इसलिए भी आम दिनों में लोग इधर नहीं आते।उस समय उनका ज्यादा आतंक या उत्पात भी नही था। वन्य प्राणियों की भी मिलने की सम्भावना रहती है।
हर साल अक्षय तृतीया के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार के दिन गुफा के पास इलाके के हजारों लोग जुटते हैं।
परंपरानुसार सबसे पहले ठाकुर टोला राजवंश के लोग पूजा करने के बाद गुफा में प्रवेश करते हैं। उसके बाद आम दर्शनार्थियों को प्रवेश करने का मौका मिलता है। गुफा के डेढ़-दो फीट के रास्ते में घुप अंधेरा रहता है।
लोग काफी कठिनाई से रौशनी कीव्यवस्था साथ लेकर बाबा के दर्शन के लिए अंदर पहुंचते हैं।
गुफा में एक साथ 500-600 लोग प्रवेश कर जाते हैं। अभी १५ २० वर्ष पूर्व गुफा के अंदर मशाल के और बीड़ी की धुवा ने मधुमक्खीयो को उत्तेजित कर दिया था और उसने काफी लोगो को काट कर घायल कर दिया था। इसलिए अंदर काफी सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है। अक्षय तृतीया के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार के भी निकल जाने के बाद बाज़ार के दिन मै अपने शासकीय कार्य निपटाने छुईखदान ब्लॉक हेड क्वार्टर गया। उपयंत्रीयो से कार्यो के मुल्यांकन पर चर्चा हेतु बुलवाया। जब वे आये तो उनके चेहरे सूजन से बिगड़े हुए थे। मैंने पूछा क्या हो गया है ,तो साथ ही में मिलने आये श्री चंद्राकर जी सहकारिता इंस्पेक्टर ने बताया की हम लोग इस बार काफी संख्या में मंदीप बाबा जी के दर्शन को गए काफी कष्टो के बाद गुफा के समीप पहुंच पाये । कई लोग नशे में थे तो कई लोग बीड़ी पीकर अपने थकावट मिटाने लगे ।. तभी अचानक ही भनभनाहट की आवाज़ के साथ ही बड़ी बड़ी मधुमक्खियां हम पर टूट पड़ी.

मै देहात से सम्बंधित हु इसलिए जानता था की क्या करना चाहिए और अपने साथ ले गए गामझे को सर में डालकर शांत बिना ही हिले डुले शांत बन पानी वाली जगह में लेट गया ,मेरे ऊपर बैठे तो लेकिन १,२ ही काटे , बीड़ी पी कर धुँआ छोड़ने वाले, दौड़ने भागने वाले उनके कोप भजन के ज्यादा ही शिकार हो घायल हुए ,जैसे तैसे ही हम लोग लौट के आ पाये। साथ में गए से अनेको अस्पताल में इलाज़ करा रहे है। मन ही मन मैंने सोचा की अच्छा हुआ की नही गया ,लेकिन गुफा को नही देख पाने और बाबा के दर्शन नही होने का दुःख मुझे आज भी है। मज़ेदार बात यह हुआ की कुछ लोग जिनको नाम बनाने की शौक होता है। आदिमानव के समय से होते आये गुफा के भीतर प्रवेश को अपनी खोज बता कर समाचार पेपर में काफी नाम कमाया।
गुफा के अंदर जाने के बाद कई रास्ते खुलते है , इसलिए अनजान आदमी को गुफा के अंदर भटक जाने का डर बना रहता है। ऐसा होने के बाद शिवलिंग तक पहुंचने में चार-पांच घंटे का समय लग जाता है।
इसलिए ग्राम के उन व्यक्तिओ को जो प्रति वर्ष अंदर जाते रहते है लोगो के साथ झुण्ड में ही जाना उचित रहता है।
स्थानीय लोगो का का कहना है मैकल पर्वत पर स्थित इस गुफा का एक छोर अमरकंटक में है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि आज तक कोई वहां तक नही पहुंच पाया है। लेकिन बहुत पहले पानी के रास्ते एक कुत्ता छोड़ा गया था, जो अमरकंटक में निकला। जबकि अमरकंटक यहां से करीब पांच सौ किलोमीटर दूर है।

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Dk Sharma
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